Dussehra: भारत में दशहरा को रावण की पराजय और अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है, जहां रावण दहन के साथ बुराई पर विजय का उत्सव मनाया जाता है। लेकिन उत्तर प्रदेश के कानपुर के शिवाला इलाके में एक प्राचीन परंपरा है, जो इस सामान्य धारणा से बिल्कुल अलग है। इस इलाके में स्थित रावण मंदिर, लगभग 158 साल पुराना है और अपनी विशेष परंपरा के कारण देशभर में अनोखा माना जाता है।
Table of Contents
सिर्फ दशहरे के दिन ही खुलते हैं कपाट
दशहरे के दिन जब ज्यादातर जगहों पर रावण का पुतला जलाया जाता है, इस मंदिर के कपाट विशेष रूप से खोले जाते हैं। भक्तों की भीड़ धीरे-धीरे मंदिर में इकट्ठा होने लगती है, और वे रावण की पूजा करने के लिए तैयार होते हैं। मंदिर के अंदर स्थित दशानन रावण की मूर्ति को फूलों से सजाया जाता है, और भक्तगण श्रद्धा से उसकी आरती करते हैं।
रावण को मानते हैं विद्वान और महान योद्धा
यहां रावण को एक विद्वान और महान योद्धा के रूप में पूजा जाता है, न कि बुराई का प्रतीक मानकर। यह मंदिर साल के बाकी दिनों में बंद रहता है, लेकिन दशहरे के दिन इसका विशेष महत्व होता है। रावण की पूजा की इस अनोखी परंपरा को मानने वाले लोग उसे शक्ति, ज्ञान, और भक्ति का प्रतीक मानते हैं। जैसे ही सूर्य ढलने लगता है, आरती की आवाज़ों और मंत्रों के उच्चारण से मंदिर का माहौल भक्तिमय हो जाता है।
दूर-दूर से आने वाले लोग
यह परंपरा न केवल स्थानीय लोगों के लिए, बल्कि दूर-दूर से आने वाले भक्तों के लिए भी विशेष आकर्षण का केंद्र है। ऐसे मंदिर और उनकी परंपराएं भारत की विविधता और धार्मिक विश्वासों की गहराई को दर्शाते हैं, जहां एक ही कथा को अलग-अलग रूपों में देखा और जिया जाता है।
तेल का दीपक और तरोई का पुष्प चढ़ाकर करते हैं पूजा अर्चना
आज भी विजयदशमी के अवसर पर नियमानुसार मंदिर के पट खोले गए, जहां भक्तों की लंबी कतार देखने को मिली और बारी बारी भक्तों ने रावण की पूजा-अर्चना की। मान्यता है कि भगवान शिव के सबसे प्रिय भक्त रावण थे, जिनको कई शक्तियां प्राप्त थी। उनकी पूजा करने से बुद्धि बल की प्राप्ति होती है। इस दिन सभी भक्त तेल का दीपक और तरोई का पुष्प चढ़ाकर पूजा अर्चना करते हैं।
1868 में महाराज गुरु प्रसाद शुक्ल ने बनवाया था रावण मंदिर
शिवाला इलाके में स्थित इस प्राचीन रावण मंदिर का निर्माण वर्ष 1868 में महाराज गुरु प्रसाद शुक्ल द्वारा कराया गया था। वे भगवान शिव के परम भक्त थे और रावण को शक्ति और विद्या का प्रतीक मानते थे। इस मंदिर में रावण की प्रतिमा को शक्ति का प्रहरी माना जाता है, और विजयदशमी के दिन इसका विशेष महत्व होता है।
शाम को होती आरती के साथ विशेष पूजा
दशहरे के दिन, मंदिर में रावण की प्रतिमा का विशेष श्रृंगार और पूजन किया जाता है। सुबह से ही मंदिर के कपाट भक्तों के लिए खोल दिए जाते हैं, और शाम को आरती के साथ विशेष पूजा की जाती है। इस दिन बड़ी संख्या में लोग मंदिर में दर्शन करने और पूजा-अर्चना करने के लिए पहुंचते हैं। सालभर मंदिर के कपाट बंद रहते हैं, लेकिन विजयदशमी के इस विशेष अवसर पर ही भक्त रावण के दर्शन कर सकते हैं।
पुजारी ने बताया क्यों करते है रावण की पूजा
मंदिर के पुजारी पंडित राम बाजपेई ने रावण की पूजा के पीछे की वजह स्पष्ट करते हुए कहा कि लोग अक्सर सवाल करते हैं कि रावण की पूजा क्यों की जाती है। उन्होंने बताया कि रावण की पूजा उनकी अद्वितीय विद्वता के कारण की जाती है, क्योंकि रावण जैसा बड़ा विद्वान और पंडित कोई नहीं हुआ। इसलिए, हम उनकी विद्वता का सम्मान करते हुए उनकी पूजा करते हैं।
जन्मदिन को भी मंदिर में धूमधाम से मनाया जाता है
इसके अलावा, पंडित बाजपेई ने यह भी बताया कि रावण का जन्म अश्विन माह के शुक्ल पक्ष में हुआ था, इसलिए उनके जन्मदिन को भी मंदिर में धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन विशेष रूप से पूजा की जाती है, और शाम को रावण के पुतले का दहन भी किया जाता है। यह परंपरा रावण की विद्वता और शक्ति को सम्मान देने के साथ-साथ दशहरे की सामान्य मान्यता के अनुसार बुराई पर अच्छाई की जीत को भी दर्शाती है।