Aravalli Row: अरावली पर्वतमाला की परिभाषा और संरक्षण से जुड़े लंबे विवाद में एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट सक्रिय हुआ है। मंगलवार को कोर्ट ने हरियाणा के सेवानिवृत्त वन संरक्षक आरपी बलवान की याचिका पर केंद्र सरकार, पर्यावरण मंत्रालय, हरियाणा और राजस्थान सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा। यह याचिका टीएन गोदावर्मन मामले में दाखिल की गई है, जिसमें केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की समिति द्वारा सुझाए गए 100 मीटर ऊंचाई वाले मानदंड को चुनौती दी गई है। कोर्ट ने शीतकालीन अवकाश के बाद मामले की आगे सुनवाई तय की है।
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Aravalli Row: याचिका में क्या है दावा?
याचिकाकर्ता आरपी बलवान ने तर्क दिया है कि पर्यावरण मंत्रालय की समिति की सिफारिश, जिसमें अरावली पहाड़ियों को स्थानीय भू-भाग से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई वाली भूमि के रूप में परिभाषित किया गया है, संरक्षण प्रयासों को गंभीर रूप से कमजोर कर देगी। उनका कहना है कि यह मानदंड अपर्याप्त है और इससे अरावली के बड़े हिस्से का कानूनी संरक्षण खतरे में पड़ जाएगा, जिसके दूरगामी पारिस्थितिक परिणाम होंगे।
याचिका में मंत्रालय के हलफनामे में विरोधाभास का भी जिक्र है। भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की 3 डिग्री ढलान वाली परिभाषा को अधिक वैज्ञानिक माना गया, लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया। याचिकाकर्ता ने जोर दिया कि यह कोई तकनीकी मुद्दा नहीं है, बल्कि राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और पूरे उत्तर-पश्चिमी भारत के पर्यावरणीय भविष्य से जुड़ा गंभीर मामला है।
Aravalli Row:अरावली का महत्व और लंबा विवाद
अरावली पर्वतमाला दुनिया की सबसे पुरानी पर्वतमालाओं में से एक है, जो गुजरात से दिल्ली तक फैली हुई है। यह थार रेगिस्तान को उत्तरी मैदानों की ओर बढ़ने से रोकने वाली प्राकृतिक दीवार है, जल संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और जैव विविधता का केंद्र है। दशकों से यहां अवैध खनन और अतिक्रमण की समस्या रही है।
1990 के दशक से पर्यावरण मंत्रालय ने खनन पर प्रतिबंध लगाए, लेकिन उल्लंघन होते रहे। 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के कुछ जिलों में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया। मई 2024 में कोर्ट ने चार राज्यों- गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली में नई खनन लीज देने पर रोक लगाई और एक समिति गठित की, जिसने एकसमान परिभाषा सुझाई। नवंबर 2025 में कोर्ट ने 100 मीटर ऊंचाई और 500 मीटर दायरे वाली परिभाषा को स्वीकार किया, लेकिन केंद्र ने स्पष्ट किया कि इससे 90 प्रतिशत क्षेत्र संरक्षित रहेगा और कोई छूट नहीं दी गई।
Aravalli Row: पर्यावरणविदों की चिंता और अन्य अपीलें
हाल ही में पर्यावरण कार्यकर्ता और वकील हितेंद्र गांधी ने मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत को पत्र लिखकर 100 मीटर नियम की समीक्षा की मांग की। उन्होंने राष्ट्रपति को भी पत्र की कॉपी भेजी और चेतावनी दी कि यह मानदंड उत्तर-पश्चिम भारत के पर्यावरण संरक्षण को कमजोर कर सकता है तथा 90 प्रतिशत क्षेत्र को खतरे में डाल सकता है। गांधी ने संविधान के अनुच्छेद 21 (स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार), 48ए और 51ए(जी) का हवाला देते हुए निचली पहाड़ियों और जल रिचार्ज क्षेत्रों की रक्षा पर जोर दिया।
पर्यावरणविदों का मानना है कि ऊंचाई आधारित मानदंड कई महत्वपूर्ण हिस्सों को बाहर कर देगा, जो संख्यात्मक सीमा पूरी नहीं करते लेकिन पारिस्थितिकी के लिए जरूरी हैं। केंद्र सरकार ने हालांकि इन आरोपों को खारिज किया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही परिभाषा बनाई गई, ताकि अस्पष्टता दूर हो और दुरुपयोग रुके।
संरक्षण और विकास का संतुलन
यह मामला अरावली के संरक्षण बनाम खनन और विकास के बीच लंबे संघर्ष को उजागर करता है। सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कोर क्षेत्रों में खनन पर सख्ती बरतने के निर्देश दिए हैं। अब नोटिस पर जवाब आने के बाद कोर्ट तय करेगा कि 100 मीटर मानदंड बना रहेगा या इसमें बदलाव होगा। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली का विनाश रेगिस्तान फैलाव, जल संकट और जैव विविधता हानि को बढ़ावा देगा। दूसरी ओर, राज्य सरकारें एकसमान नीति की मांग करती रही हैं।
यह याचिका और नोटिस अरावली को बचाने की लड़ाई में नया अध्याय है। विशेषज्ञ उम्मीद कर रहे हैं कि कोर्ट वैज्ञानिक और पारिस्थितिक आधार पर मजबूत फैसला देगा, ताकि यह प्राचीन पर्वतमाला आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रहे।
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